गीता क्यों पढें ?
मनुष्य और पशुओं में क्या अंतर है?
जानवरों के सारे कर्म आहार, निद्रा, भय और मैथुन को आधार मान कर होते हैं। 99% मनुष्यों का जीवन भी इन्हीं चार कर्मो में उलझ कर बीत जाता है।एक बड़ा अंतर मनुष्य के पास विवेक है, जिससे वह जान सकता है कि जीवन मे दुख क्यो पाता है, एवम इन दुखों का निवारण कर सकता है। मनुष्य के अतिरिक्त किसी योनि में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है।
जानवरों के सारे कर्म आहार, निद्रा, भय और मैथुन को आधार मान कर होते हैं। 99% मनुष्यों का जीवन भी इन्हीं चार कर्मो में उलझ कर बीत जाता है।एक बड़ा अंतर मनुष्य के पास विवेक है, जिससे वह जान सकता है कि जीवन मे दुख क्यो पाता है, एवम इन दुखों का निवारण कर सकता है। मनुष्य के अतिरिक्त किसी योनि में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है।
अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्यों के लिये श्री मद्भ्भगवत गीता में तीन योग मार्ग बतलाये गये हैं।
1. ज्ञान योग
2. कर्म योग
3. भक्ति योग
पांच प्रकार के सत्य गीता में विस्तार से बताये गये हैं।
1. परमात्मा, ईश्वर भगवान। ये तीनो भगवान के रुप हैं, एवम अभिन्न हैं।
2. जीव ,चेतन, प्राणी भगवान का अंश है।
3. प्रकृति तीन गुणों से बनी है.....सतोगुण, रजोगुण एवम तमोगुण।
4. काल,,भगवान की शक्ति है....इस पर किसी का नियंत्रण नहीं है।
5. सारे कर्म और क्रियायें प्रकृति के गुणों और काल के अधीन की जाती हैं।
1. परमात्मा, ईश्वर भगवान। ये तीनो भगवान के रुप हैं, एवम अभिन्न हैं।
2. जीव ,चेतन, प्राणी भगवान का अंश है।
3. प्रकृति तीन गुणों से बनी है.....सतोगुण, रजोगुण एवम तमोगुण।
4. काल,,भगवान की शक्ति है....इस पर किसी का नियंत्रण नहीं है।
5. सारे कर्म और क्रियायें प्रकृति के गुणों और काल के अधीन की जाती हैं।
उपदेश युद्ध भूमि में क्यों...?
जीवन सदैव ही एक संघर्ष है। यह उपदेश संघर्ष शील जीवन के लिए उपयोगी है।
गीता में किसी मत का आग्रह नहीं है, केवल जीव के कल्याण का आग्रह है।
गीता सगुण एवम निर्गुण साधकों में कोई वैमनस्य पैदा नहीं करती। हर मान्यता के साधक इससे लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
जीवन सदैव ही एक संघर्ष है। यह उपदेश संघर्ष शील जीवन के लिए उपयोगी है।
गीता में किसी मत का आग्रह नहीं है, केवल जीव के कल्याण का आग्रह है।
गीता सगुण एवम निर्गुण साधकों में कोई वैमनस्य पैदा नहीं करती। हर मान्यता के साधक इससे लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
🕉 गीता प्रथम अध्याय 🕉
गीता का ज्ञान दूसरे अध्याय से आरम्भ होता है। पहले अध्याय का नाम अर्जुन विषाद योग है। अर्जुन अपने भाइयों के साथ उस काल अर्थात द्वापर युग के प्रचलित वेदों के अनुसार निर्धारित ब्रह्मचर्य आश्रम गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में बिता चुके हैं, अर्थात वेदों की शिक्षा ग्रहण कर चुके है। गृहस्थ आश्रम में प्रवेश से पहले सभी निर्धारित विषयों में पारंगत हो चुके है, इसलिए गुरु जी के सबसे प्रिय शिष्य है।
विषाद अर्थात दुख पीड़ा उसी मनुष्य को होती है जिसे परिस्थितियों के वशिभूत होकर विविशता में ऐसा कार्य करना पड़ता है, जिसे वह सिद्धांत रूप में ठीक नहीं समझता।
भगवान कृष्ण के शांति प्रस्ताव को दुर्योधन पक्ष ठुकरा चुका था। युद्ध के अतिरिक्त कोई विकल्प दिखाई नहीं दे रहा था। दोनों ओर की सेनाएं युद्ध भूमि में आमने सामने आ चुकी हैं। अर्जुन की इच्छानुसार कृष्ण रथ को सेनाओ के मध्य में खड़ा कर देते हैं।
अर्जुन अपने सामने अपने गुरु, पितामह, भाई, रिश्तेदार सब को खड़ा पाता है | उस का शास्त्रो का ज्ञान और परिजनों का मोह उस पर हावी होने लगता है, मस्तिष्क अपनी निर्णय क्षमता खो देता है।
केवल युद्ध की कल्पना मात्र से उस के परिणाम सोच कर उसके अंग शिथिल होने लगे, गला सूखने लगा, उसने अपने विवेक अनुसार शास्त्र सम्मत प्रश्न उठाये |
1. अपने कुल का नाश करने का पाप लगेगा।
2. कुल का नाश होने पर कुल धर्म नष्ट हो जायेगा।
3. अधर्म के बढ़ने पर कुल की स्त्रियां दूषित हो जाएगी। इससे वर्णसंकर पैदा हो जायेगा।
4. वर्णसंकर कुलघातियों से पूरा कुल नर्क का भागी होगा। पितरों को श्राद्ध और तर्पण नहीं मिलेगा, वे भी अपने स्तर से गिर जायेंगे।
5. उपरोक्त के फलस्वरूप जातिधर्म भी नष्ट हो जाते हैं।
6. ऐसे मनुष्यो का बहुत काल तक नरकों में वास होता है।
7. आश्चर्य कि सामने खड़े विद्वान गुरुजन पितामह आदि सब कुछ जानते हुए युद्ध के लिए क्यों तत्पर हैं।
8. लड़ने की अपेक्षा विरोधी पक्ष मुझे मार भी दे तो कम से कम उपरोक्त सभी पापों का भागी नहीं होऊंगा।
उपरोक्त तथ्य बोल कर विषादग्रस्त अर्जुन निरुत्साहित होकर रथ के मध्य में अस्त्र शस्त्र रख कर बैठ गए।
भगवान कृष्ण इन सभी प्रश्नों के समाधान देने के लिये दूसरे अध्याय से उपदेश प्रारंभ करते हैं।
नोट:- अर्जुन हमारा प्रतिनिधि है। अर्जुन के हर प्रश्न का उत्तर भगवान ने दिया है, उत्तर पढ़ने से पहले हमें ये विचार करना है कि यदि मैं अर्जुन की परिस्थिति में होता तो मेरा प्रश्न क्या होता।
मैंने गीता का विद्यार्थी होने के नाते जितनी बार अर्जुन के प्रश्नों को पढ़ा, तब यही पाया कि अर्जुन के प्रश्नों का स्तर उच्चकोटि का है। यदि साधारण प्रश्न होते तो गीता का उपदेश दूसरे अध्याय में ही समाप्त हो जाता।
जब तक प्रश्न चलते रहे उपदेश चलता रहा। 18 वे अध्याय में अर्जुन ने स्वीकार किया कि मेरा मोह नष्ट हो गया है, मेरी स्मृति लौट आई है, तभी उपदेश की इतिश्री हुई।
!!हरे कृष्णा!!
!ओउम शान्ति!
🕉🕉🕉
द्वितीय अध्याय(सांख्य योग)
सांख्य का अर्थ है ज्ञान और योग का अर्थ है समता। ज्ञान में समता कैसे बनायें ? ज्ञानवान होना परिश्रम से किसी भी मनुष्य के लिए सुलभ है, लेकिन वह शाब्दिक ज्ञान कहलायेगा, जब तक मन बुद्धि और कर्म से उस पर आचरण करने का निरन्तर अभ्यास न किया जाए।
आज कल साधारण भाषा मे जिसे योग कहा बोला जाता है, अर्थात आसन प्राणायाम वह अष्टांग योग का आठवां भाग है, पतंजलि योगदर्शन और वेदों के अनुसार अष्टांग योग के आठ स्टेप इस प्रकार हैं |
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
पहले अध्याय में हमने पढ़ा कि अर्जुन गहरे विषाद की अवस्था मे चले गये हैं, उनको ऐसी स्थिति में पाकर भगवान बोले-
तुम बहुत वीर हो अर्जुन, वेदों का अध्ययन भी कर चुके हो, फिर ऐसी कायरता क्यो दिखा रहे हो? प्रायः गृहस्थ की तीन इच्छायें होती हैं, पुण्य कर्म, स्वर्ग की प्राप्ति और सांसारिक यश प्रतिष्ठा। इस समय तुम्हारी मनोदशा और व्यवहार इन तीनों की प्राप्ति में बाधक बन रहा है। ऐसी निपुनस्कता तुम्हारे जैसे वीर के लिये शोभनीय नहीं है। तुम इस दुर्बलता को त्याग कर खड़े हो जाओ।
अर्जुन बोले मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही, भीष्म और द्रोण पूजनीय हैं, मैं इनके विरुद्ध युद्ध कैसे करूँ। गुरुजनों को मार कर उनके रक्त से सना भोजन करने से मुझे भिक्षा का अन्न खाना अधिक श्रेयस्कर लगता है। अर्जुन का यह तर्क परिवार के मोह के अतिरिक्त सांसारिक भलाई moral ground पर भी उचित लगता है।
अर्जुन पुनः प्रश्न करते हैं, मुझे सूझ नहीं रहा कि युद्ध करना या न करना, दोनों में से मेरे लिए क्या श्रेयस्कर है, इसलिए मार्गदर्शन दीजिए।
इसका भाव यह नहीं है कि अर्जुन शरणागत हो गया है। ऐसा होता तो प्रश्न यह करता जैसा आप कहेंगे वैसा ही करूँगा।
अर्जुन पुनः तर्क देता है कि जो सुख समृद्धि उसे युद्ध जीतने पर मिलेगी, इसकी तुलना में जो परिजनों और गुरुजनों को मारने का असीमित शोक कैसे दूर होगा?
ऐसे प्रश्नों और तर्को के साथ अर्जुन पुनः घोषित कर देता है कि, मैं युद्ध नहीं करूंगा।
!!हरे कृष्णा!!
!ओउम शान्ति!
2.11 से भगवान का उपदेश शुरू होता है। भगवान कहते हैं तुम जिसका शोक कर रहे हो वह शोक करने योग्य नहीं हैं। तुम तर्क तो ज्ञानी और विद्वानों जैसे कर रहे हो लेकिन यह नहीं समझते कि जिनके प्राण चले गए हैं, पण्डित जन उनके लिये शोक नहीं करते। मनुष्य प्राणी और पदार्थ के प्रति मेरा है, मेरा नहीं है की भावना attachment पैदा कर लेता है। जिन्हें अपना मानता है उन जीवो और वस्तुओं के प्रति मोह और आसक्ति पैदा कर लेता और जिन्हें अपना नहीं समझता उनके प्रति द्वेष पैदा कर लेता है।
हे अर्जुन, शरीर और दुनिया के समस्त पदार्थ अनित्य हैं, लेकिन शरीरी (आत्मा) नित्य है। शरीर तो किराये के मकान जैसा है, जो सीमित समय के लिए हमारे साथ है लेकिन आत्मा नित्य है, केवल प्रकृति, आत्मा ( जीव) और परमात्मा नित्य हैं।
वेदों के अनुसार भी
1. प्रकृति सत्तात्मक है।
2. जीव सत्तात्मक और चेतन है।
3. ईश्वर सत्तात्मक, चेतन और आनन्दस्वरूप है।
परमात्मा ने सृष्टि की रचना आत्मा के भोग और अपवर्ग (मुक्ति) के लिये की है।
!!हरे कृष्णा!!
!ओउम शान्ति!
2.11 से भगवान का उपदेश शुरू होता है। भगवान कहते हैं तुम जिसका शोक कर रहे हो वह शोक करने योग्य नहीं हैं। तुम तर्क तो ज्ञानी और विद्वानों जैसे कर रहे हो लेकिन यह नहीं समझते कि जिनके प्राण चले गए हैं, पण्डित जन उनके लिये शोक नहीं करते। मनुष्य प्राणी और पदार्थ के प्रति मेरा है, मेरा नहीं है की भावना attachment पैदा कर लेता है। जिन्हें अपना मानता है उन जीवो और वस्तुओं के प्रति मोह और आसक्ति पैदा कर लेता और जिन्हें अपना नहीं समझता उनके प्रति द्वेष पैदा कर लेता है।
हे अर्जुन, शरीर और दुनिया के समस्त पदार्थ अनित्य हैं, लेकिन शरीरी (आत्मा) नित्य है। शरीर तो किराये के मकान जैसा है, जो सीमित समय के लिए हमारे साथ है लेकिन आत्मा नित्य है, केवल प्रकृति, आत्मा ( जीव) और परमात्मा नित्य हैं।
वेदों के अनुसार भी
1. प्रकृति सत्तात्मक है।
2. जीव सत्तात्मक और चेतन है।
3. ईश्वर सत्तात्मक, चेतन और आनन्दस्वरूप है।
परमात्मा ने सृष्टि की रचना आत्मा के भोग और अपवर्ग (मुक्ति) के लिये की है।
सांख्य योग 2.12 से 2.22 तक
भगवान कृष्ण ने अर्जुन के मन को भांप कर देख लिया कि वह अत्यंत मोहग्रस्त हो गया है। इसलिए नश्वर अनित्य शरीर ,देह एवमं शरीरी, देही ( जीवात्मा), की विस्तृत व्याख्या करने लगे।
हे अर्जुन, ये मत समझो कि किसी काल मे तुम नहीं थे, या ये राजा लोग नहीं थे, भविष्य में भी तुम मैं और राजा लोग रहेंगे। देहधारियों के इस मनुष्य शरीर मे जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है। इस विषय मे धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।
शरीर प्रति क्षण मर रहा है। गर्भावस्था में आते ही मरने का क्रम आरम्भ हो जाता है। जन्मना और मरना शरीर का धर्म है।
इन्द्रियों के विषय जड़ पदार्थ, अनुकूलता प्रतिकूलता के द्वारा सुख दुःख देने वाले हैं, अनित्य हैं, अर्थात आने जाने वाले हैं, इसलिए अर्जुन इनको सहन करो। सांसारिक पदार्थों का संयोग वियोग होता रहता है। जो कुछ भी हमारे शरीर को दिखाई पड़ता है सब नश्वर है, शरीर स्वयं भी नश्वर है, इसलिए प्रकृति के गुणों से उतपन्न होने वाली अनुकूलता प्रतिकूलता स्थाई कैसे हो सकती है।
इसको सहन करने की क्षमता जो मनुष्य पैदा कर लेते हैं, वे सुख दुःख से विचलित नहीं होते। सदैव समता बनाये रखना ही योग है।
शरीर जन्म से पहले नहीं था, मरने के बाद नहीं रहेगा, हर क्षण इस का अभाव हो रहा है, लेकिन आत्मा सदैव विद्यमान है। तत्वदर्शी पुरुषों ने इन दोनों का तत्व देखा है और अनुभव किया है। आत्मा अविनाशी है, देह अनित्य है। इसलिए अर्जुन तुम युद्ध करो।
जो मनुष्य आत्मा को मरने मारने वाला मानते हैं, वे इससे सर्वथा अनभिज्ञ हैं । ये आत्मा न मारता और न ही मारा जाता है।
आत्मा शाश्वत नित्य निरन्तर रहने वाली है, जो मनुष्य इस सत्य को जानता है, वह कैसे किसी को मार सकता है या मरवा सकता है।
मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़ कर नए धारण कर लेता है, इस प्रकार देही नया शरीर धारण कर लेता है।
5 कर्मेन्द्रियां, 5 ज्ञानेन्द्रियां और 5 उनके विषय |
कर्मेन्द्रियां:- हाथ, पैर, मुंह, मल, मूत्र द्वार
ज्ञानेन्द्रियाँ :- आंख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा
इंद्रियों के विषय:- दृश्य, श्रवण, घ्राण, स्वाद,स्पर्श
!!हरे कृष्णा!!
!ओउम शान्ति!
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