तृतीय अध्याय,,,कर्म योग
3,1 से 3,8
🕉🕉🕉
दूसरे अध्याय में भगवान ने शरीर की नश्वरता और आत्मा की नित्यता का ज्ञान दिया, स्थिर बुद्धि और कर्म में समता का महत्व बताया। अर्जुन जो मन मे युद्ध न करने की धारणा बनाये बैठा था और कन्फ्यूज हो गया। बोला:- हे जनार्दन.... अगर आप कर्म से ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर मुझे घोर कर्म में क्यो लगाते हैं,? आपके मिले हुए से वचनों से मेरी बुद्धि अनिर्णय की स्थिति मे आ गई है। अतः मुझे निश्चित एक ही बात कहिये...।
हे अर्जुन ! इस मनुष्य लोक में दो प्रकार की निष्ठा होती है। ज्ञानियों की निष्ठा ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है। कर्मयोग में संसार की प्रधानता है और ज्ञान योग में जीवात्मा की प्रधानता है।
मनुष्य न तो कर्मो का आरंभ किये बिना निष्कर्मता का अनुभव करता है, और न कर्मो के त्याग मात्र से सिद्धि को प्राप्त करता है। कर्मो और पदार्थों को त्यागने की अपेक्षा उनमें आसक्ति का त्याग करना होता है। ज्ञान योग में तीव्र वैराग्य के बिना आसक्ति का त्याग अत्यंत कठिन है लेकिन कर्मयोग में केवल दूसरों के लिए कर्म करते रहने से (सेवा) आसक्ति का त्याग सुगमता पूर्वक हो जाता है।
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था मे क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता... क्योंकि वह प्रकृति के वश में रहता है, और प्रकृति के गुण *( सात्विक, राजसी, तामसी) कर्म करवा लेते हैं। प्रकृति कभी अक्रिय अवस्था मे नहीं रहती.... शरीर भी उसका भाग है, इसलिए सदैव सक्रिय और परिवर्तनशील है। आत्मा सदैव एक जैसी रहती है, अतः उसमें कर्तापन नहीं है,लेकिन शरीर से सम्बन्द्ध मानने के कारण प्रकृति के परवश हो जाता है।🕉
जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को हठपूर्वक रोक कर, मानसिक भोग चिंतन करते रहते हैं,,, उनके तुल्य कोई मूढ़ नहीं है। ऐसा आचरण मिथ्या और स्वयं को ही धोखा देने वाला है।🕉
परन्तु हे अर्जुन ! जो मनुष्य मन और इन्द्रियों पर समान रूप से नियंत्रण करके निष्काम भाव से आचरण करते हैं, वही श्रेष्ठ हैं और कर्म योगी हैं। क्योंकि कर्मयोग में कर्म से अधिक योग ( समता, निष्कामता) की प्रधानता है। इसलिए तू शास्त्र विधि से निर्धारित किये हुए कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। इसके अतिरिक्त कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
शरीर को बनाये रखने के लिये जिंदा रहने के लिये कर्म करना ही होगा। साधारण भाषा मे आर्थिक लाभ, कमाई को ही कर्म माना जाता है,,, लेकिन गीता के अनुसार मन मे विचार चलना, सांस लेना, खाना, पीना सब कर्म हैं।
ओउम शान्ति
जय श्री कृष्णा
Comments
Post a Comment